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This monologue is recorded in my diary as having been written at the dawn of Sunday, the 6th of April '08. I was staying at Nagpur in that period and it was a norm to have a "party" on weekends, preferably on Saturday nights ( needless to say what kind of a "party" as guys all over the globe have the exact same idea of "party" ). It's pretty obvious that I must've been really high that night otherwise I don't normally deal in so much of Urdu. Felt like posting it as my debut blogpost, so here it is.]
दिन-इतवार ,
तारीख -06' अप्रैल ,
साल -2008,
बस ..कमबख्त इस वक्त का ही कुछ मुक़म्मल पता नहीं चल पा रहा है ...
Terrace पर आकर देखता हूँ तो ऐसा मालुम होता है जैसे शाम है ..
लेकिन ...यकीनी तौर पर कुछ भी कह पाना मुश्किल है ।
होने को सेहर
भी हो सकती है ।
गौर का चश्मा लगाऊं तो
शायद तय हो भी जाए ..
पर न जाने क्यूँ ..आज किसी भी चीज़ पर गौर करने को दिल नहीं करता।
आखिरकार ...आसमां के रंग तो वोही रहने वाले हैं ..
फिर चाहें वक्त-ऐ-शाम हो या वक्त -ऐ-सेहर ..
क्या फर्क पड़ता है ?
सुनता हूँ ..दूर कहीं से ..
कुछ पंछियों के चेहचेहाने की आवाज़ आ रही है ..
मानों क़ुदरत ख़ुद उनकी ज़ुबां में अपनी ही कोई नज़्म गुनगुना रही हो ..
और ये क्या ..ये गीली मिट्टी की खुश्बू !!
-बारिश !?
आह ! बस इसी की कमी थी..अब ख़ुमार पूरा होगा।
लेकिन..इस तरह से आज अचानक बिन बताये क़ुदरत का ये
पुरखुमार शक्ल अख्तियार करना बे-सबब तो नहीं हो सकता..इन सब चीज़ों का एक साथ होना बे मायने तो नहीं हो सकता।
देखो न..यूँ ही अचानक आज फिर एक बार...
ये अल्फ़ाज़ों की बंदगी करने का मन बनना..
ये शाम और सेहर के बीच के फर्क का मिट
जाना..ये क़ुदरत की नज़्म कानों को फिर से सुनाई देना...
ये April में बारिश ...
और इन सब से बढ़कर...
कहीं बढ़कर...
ये तुम्हारा ख़याल !
हाँ..तुमने सही समझा..मैं तुम्हें ही सोच रहा हूँ।
अल्फ़ाज़ों की इस भूल भुल्लैय्या में ख़ुद को उलझा कर भी...
मैं सिर्फ़ तुम्हें ही सोच रहा हूँ।
क़ुदरत की मीठी नज़्में सुनता हुआ भी...
मैं मेहेज़ तुम्हें ही सोच रहा हूँ।
ये शाम हो या के सेहर ..क्या फर्क पड़ता है ?
मैं तो बस तुम्हें सोच रहा हूँ
। गैरों से ही नहीं बल्कि ख़ुद से भी कट कर ..
कहीं दूर ...अलग हट कर...
अपनी तन्हाइयों में अकेला...गुमसुम...
मैं फ़ख्त तुम्हें सोच रहा हूँ।
वक़्त जैसे खो सा गया है...
मानों..बे-मायने हो गया है...
और मैं हूँ के तुम्हें..सिर्फ़ तुम्हें..
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हें सोच रहा हूँ ।
यकीनन ये सब मेहेज़ इत्तेफाक़ तो नहीं हो सकता..
कोई ना कोई सबब ,
कोई ना कोई वजह तो ज़रूर होगी।
वो सबब क्या है,वो वजह क्या है..मैं नहीं जानता ..मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ के आज फिर तुम मुझे याद आ रही हो
। बहुत याद आ रही हो ।
टूट कर याद आ रही हो। लेकिन इस बार इस याद आने में एक बुनियादी फर्क महसूस करता हूँ।
फर्क ये है के इस बार तुम्हारी याद अपने साथ कोई दर्द, कोई रंज, कोई गिला, कोई शिकवा, कोई शिकायत या कोई कड़वाहट लेकर नहीं आई है बल्कि इस बार साथ लायी है तो सिर्फ़ एक मीठी सी मुस्कराहट..एक मुस्कराहट जिसमे जो ना हो सका, जो ना मिल सका उसकी कोई शिकायत नहीं बल्कि जो हुआ, जितना हुआ, जो मिला, जितना मिला उस की ख़ुशी है, उसका शुक्रिया है।
शायद..ये एक नई शुरुआत है।
दुआ करता हूँ की ये एक नई शुरुआत ही हो..क्यूंकि बा-ख़ुदा..ये ख़लिश जो मैं अपने सीने में लिए पिछले आठ सालों से जिए जा रहा हूँ..ये ख़लिश अब मुझसे और बर्दाश्त नहीं होती।
ख्यालों के दायरे से बाहर आकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि आसमां पर से धुंधलका हौले हौले छंट रहा है और बजाय अँधेरा गहराने के, रौशनी छाती जा रही है।
ओह..तो मतलब वो सेहर रही होगी ।
सो चलो..इसी बात पर आज का आखिरि
जाम..तुम्हारी अरसे बाद आई इक
मीठी याद के नाम,इस यादगार सेहर के नाम,आने वाली इस नई खूबसूरत सुबह के नाम और इक नई पुरउम्मीद शुरुआत के
नाम..Here's looking at you, Kid..