Friday, July 25, 2008

बिस्मिल्लाह !

[ This monologue is recorded in my diary as having been written at the dawn of Sunday, the 6th of April '08. I was staying at Nagpur in that period and it was a norm to have a "party" on weekends, preferably on Saturday nights ( needless to say what kind of a "party" as guys all over the globe have the exact same idea of "party" ). It's pretty obvious that I must've been really high that night otherwise I don't normally deal in so much of Urdu. Felt like posting it as my debut blogpost, so here it is.]




दिन-इतवार ,
तारीख -06' अप्रैल ,
साल -2008,
बस ..कमबख्त इस वक्त का ही कुछ मुक़म्मल पता नहीं चल पा रहा है ...

Terrace पर आकर देखता हूँ तो ऐसा मालुम होता है जैसे शाम है ..
लेकिन ...यकीनी तौर पर कुछ भी कह पाना मुश्किल है ।

होने को सेहर भी हो सकती है ।

गौर का चश्मा लगाऊं तो शायद तय हो भी जाए ..
पर न जाने क्यूँ ..आज किसी भी चीज़ पर गौर करने को दिल नहीं करता।
आखिरकार ...आसमां के रंग तो वोही रहने वाले हैं ..
फिर चाहें वक्त-ऐ-शाम हो या वक्त -ऐ-सेहर ..
क्या फर्क पड़ता है ?

सुनता हूँ ..दूर कहीं से ..
कुछ पंछियों के चेहचेहाने की आवाज़ आ रही है ..
मानों क़ुदरत ख़ुद उनकी ज़ुबां में अपनी ही कोई नज़्म गुनगुना रही हो ..

और ये क्या ..ये गीली मिट्टी की खुश्बू !!
-बारिश !?

आह ! बस इसी की कमी थी..अब ख़ुमार पूरा होगा।

लेकिन..इस तरह से आज अचानक बिन बताये क़ुदरत का ये पुरखुमार शक्ल अख्तियार करना बे-सबब तो नहीं हो सकता..इन सब चीज़ों का एक साथ होना बे मायने तो नहीं हो सकता।

देखो न..यूँ ही अचानक आज फिर एक बार...
ये अल्फ़ाज़ों की बंदगी करने का मन बनना..
ये शाम और सेहर के बीच के फर्क का मिट जाना..
ये क़ुदरत की नज़्म कानों को फिर से सुनाई देना...
ये April में बारिश ...
और इन सब से बढ़कर...कहीं बढ़कर...
ये तुम्हारा ख़याल !

हाँ..तुमने सही समझा..मैं तुम्हें ही सोच रहा हूँ।

अल्फ़ाज़ों की इस भूल भुल्लैय्या में ख़ुद को उलझा कर भी...
मैं सिर्फ़ तुम्हें ही सोच रहा हूँ।

क़ुदरत की मीठी नज़्में सुनता हुआ भी...
मैं मेहेज़ तुम्हें ही सोच रहा हूँ।

ये शाम हो या के सेहर ..क्या फर्क पड़ता है ?
मैं तो बस तुम्हें सोच रहा हूँ

गैरों से ही नहीं बल्कि ख़ुद से भी कट कर ..
कहीं दूर ...अलग हट कर...
अपनी तन्हाइयों में अकेला...गुमसुम...
मैं फ़ख्त तुम्हें सोच रहा हूँ।

वक़्त जैसे खो सा गया है...
मानों..बे-मायने हो गया है...
और मैं हूँ के तुम्हें..सिर्फ़ तुम्हें..सिर्फ़ और सिर्फ तुम्हें सोच रहा हूँ ।

यकीनन ये सब मेहेज़ इत्तेफाक़ तो नहीं हो सकता..कोई ना कोई सबब ,कोई ना कोई वजह तो ज़रूर होगी।
वो सबब क्या है,वो वजह क्या है..मैं नहीं जानता ..मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ के आज फिर तुम मुझे याद आ रही हो बहुत याद आ रही हो ।

टूट कर याद रही हो


लेकिन इस बार इस याद आने में एक बुनियादी फर्क महसूस करता हूँ।
फर्क ये है के इस बार तुम्हारी याद अपने साथ कोई दर्द, कोई रंज, कोई गिला, कोई शिकवा, कोई शिकायत या कोई कड़वाहट लेकर नहीं आई है बल्कि इस बार साथ लायी है तो सिर्फ़ एक मीठी सी मुस्कराहट..एक मुस्कराहट जिसमे जो ना हो सका, जो ना मिल सका उसकी कोई शिकायत नहीं बल्कि जो हुआ, जितना हुआ, जो मिला, जितना मिला उस की ख़ुशी है, उसका शुक्रिया है।

शायद..ये एक नई शुरुआत है।
दुआ करता हूँ की ये एक नई शुरुआत ही हो..क्यूंकि बा-ख़ुदा..ये ख़लिश जो मैं अपने सीने में लिए पिछले आठ सालों से जिए जा रहा हूँ..ये ख़लिश अब मुझसे और बर्दाश्त नहीं होती।

ख्यालों के दायरे से बाहर आकर देखता हूँ तो पाता हूँ कि आसमां पर से धुंधलका हौले हौले छंट रहा है और बजाय अँधेरा गहराने के, रौशनी छाती जा रही है।

ओह..तो मतलब वो सेहर रही होगी ।

सो चलो..इसी बात पर आज का आखिरि जाम..तुम्हारी अरसे बाद आई इक मीठी याद के नाम,इस यादगार सेहर के नाम,आने वाली इस नई खूबसूरत सुबह के नाम और इक नई पुरउम्मीद शुरुआत के नाम..

Here's looking at you, Kid..

10 comments:

Unknown said...

The soliloquist...mubarak ho..read..it

sunder...subhaanallah .....share it bhai...ready for the round of applauds

Ankit khare said...

सुभानअल्लाह |
अगर ये शायरी नहीं तो क्या है ? गर काफिये मिलेंगे तभी शायरी होगी क्या ? कुछ याद आ रहा है शायद एक बार तुमने पूंछा था कि शायरी कैसे करते हो तो जनाब अब जवाब अपने ही लिखे हर्फो में दूंढ लीजिये | और साब हम तो कायल हो गए आपकी उर्दू के और घायल हैं हम आपकी कलम के | तो अब ये हमारा फर्ज बनता है कि इसका जवाब हम उसी लहजे में दे जिसमे इसने ये मुकम्मल शक्ल पाई है|
तो जनाब सच कहता हूँ अगर ये लफ्ज़ कागज़ से उठ जिंदा हो जायें तो यकीनन एक हसीना की शक्ल अख्तियार करेंगे | यकीनन अल्फाज़ लिखे नहीं गए हैं ये बिखर कर किसी के कानो में जा के घुल जाना चाहते थे पैर आपने इन्हें इन उजले कागज़ की काली कैद दे दी है|
जाने क्यों ये चाँद शेर याद आ रहे हैं
मुझे खबर थी वो मेरा नहीं पराया था
हाँ धडकनों ने उसी को खुदा बनाया था
तमाम शहर में एक वो हैं अजनबी हमसे
की जिसने गीत मेरा शहर को सुनाया था
मैं ख्वाब ख्वाब जिसे ढूंढता फिरा बरसो
वो एक अश्क मेरी आँख में समाया था |

दोस्त बेसबब यादें कभी किसी नयी चीज़ की तामीर की या या किसी नयी सुबह होने की वजहे बन जाती हैं और वही हुआ तुम्हारे साथ | तनहा रात जब तुम दोस्तों के साथ भी रहे होगे तब भी तुम तनहा थे और तन्हाई ने अपना पुरकैफ आँचल तुम फैला दिया होगा और दिल की कशिश और एक खुदाई एहसास से खड़े हुए हर रोए को तुमने महसूस किया होगा (इस दिल के इस एहसास को महसूस कर रहा हूँ मैं और रोएं सारे तुम्हारे एहसास के सम्मान में खड़े हैं और मेरे रोए रोएं से निकल रहा है सुभान अल्लाह )

वो जाम के दौर के साथ वो नाउम्मीद उम्मीदी का दौर या वो आलम के ठहरने वाली बात सब बेसबब भले ही लगें पर न तो वो बेवजह हैं न बेसबब | दोस्त एक शेर फिर याद आया किसी खूबसूरत ग़ज़ल का है
इधर तड़प कर उन्हें पुकारे जूनून मेरा
धड़क उठे दिल उधर तो समझो ग़ज़ल हुई
तो ऐसे आसमानी रूहानी मिलन पर आलम ठहर जाये तो क्या बड़ी बात है , कलम मचल जाये तो क्या बड़ी बात है ? महफिल में तनहा पहले भी थे अब भी हैं पहले तेरी आँखों में अब तेरी यादों में

क्या कहूं अल्फाज मुझे भी रुसवा कर देंगे और कुछ लिखा तो मेरे कलम में भी मोहब्बत की स्याही पड़ जायेगी और मैं भी सरेआम रुसवा हो जाऊँगा और लोग बेवजह उदासी का सबब पूंछेंगे
और बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी ...........

The Badguy said...

Thank You very much, Hemani Di.
Sorry.. didn't get what you mean by share it ?!

The Badguy said...

शुक्रिया दोस्त !
क्या कहूं..सिर्फ इतना ही बोलूँगा कि मेरी पोस्ट से कहीं बेहतर तो तुम्हारा कमेन्ट है !
बोहोत बोहोत शुक्रिया :)

Unknown said...

Ohh i didnt mean anithing personal.....by sharing or by asking you to share..all i meant was....just ur wonderful..amazing..so very profound thoughts and write ups...yeah i know m quite non-linear wen it cumz to express

The Badguy said...

Rest assured,I haven't taken anything as personal.Why would I ? Aapne aisa kaha hi kya jo personal loonga..aapne to taareef hi ki thi.

But I really didn't get what you meant by "sharing".

As I see it,THAT's exactly what I am doing through this blog i.e. "sharing".

Hope it can clear the confusion,if any :)

Unknown said...

Great work bhai....your posts are always delight to read.

The Badguy said...

Ah ! Suhas Bhai !! What a pleasant surprise !

Glad that you liked the post. Sincerely hoping that your guidance in the form encouragement as well as criticism, as and when required, shall continue to shower upon me in the future as well :)

Unknown said...

Superb!!! Absolutely Mindblowing!! God Bless you!!

The Badguy said...

Hey Neetu..Thanks !

Your comment made my day !

:)