Saturday, February 7, 2009
अब तो हर रोज़ मेरे दिल में ख्याल आता है..
[ MY version of Saahir Saab's immortal कभी कभी..]
अब तो हर रोज़ मेरे दिल में ख्याल आता है..
कि ज़िन्दगी तेरे आगोश में गुज़रने पाती..
तो शादाब हो ही जानी थी।
ये ना-उम्मीदी कि ख़लिश जो रूह को घेरे है..
तेरे संग कि खुमारी में खो ही जानी थी।
मगर...अफ़सोस।
अफ़सोस.. ये मकतूब न था ..
और अब ये ठाना है..
के तू नही,तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं।
गुज़ार देनी है यूं ही ज़िन्दगी मुझको..
के दिल को अब और सहारों की आरज़ू भी नहीं।
न कोई राह, न मंज़िल, न रौशनी का सुराग़..
भटकते रहना है यूँ ही.. बेमक़सद मुझको ।
और खो के रह जाना है इन्ही स्याह अंधेरो में कहीं ..
है फ़ैसला ये किया मेरी हमनफस.... मगर फिर भी..
न जाने क्यूँ..फिर भी...
अब भी हर रोज़ मेरे दिल में ख्याल आता है...............
(शादाब- आनंदमय/blissful, मकतूब-लिखा/ written/destined/ordained, हम नफस- साथी/ companion)
The poem, in it's original form, as recited by the poet Saahir Saab himself, can be heard here
Another version of the same poem, this time recited in his inimitable baritone by Amit Ji, can be heard here (jump to 02:09):
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2 comments:
mr. badguy
आपकी टिप्पणी पसंद आई
आपकी भी .................... जय
पाठक देवता समान होता है उसकी जय तो होनी ही चाहिए वैसे आप क्या समझे थे ?
जो कहना है कहिये कोई क्या उखाड़ लेगा ?
नयी posting पर कमेन्ट नहीं दिए हम इन्तेज़ार में हैं ......
ब्लॉग का निरंतर अनुसरण प्रार्थनीय है
vatsayan
ab to har raoj mere dil mein khayal aata hai......
shayar andero mein kho jane ki baat karta karta roshni mein aa gaya
bahut dino se comment nahi kar pa raha tha aaj thoda mauka mila hai.
badhiya dost........
kamal hai original se kahin se ratti bhar bhi kam nahi .
magar ye maktoob na tha aur ab ye thana hai ......
bas do lines abhi jehan mein uthi hai wahi keh raha hoon....
instant shayari hai..
intekhabat sher ki ruswaiya lati rahi
maktoob ne maktool ko mujrim bana diya
intekhaab bole to likhna ,intekhabat bole to likhne ki aadat
Ankit khare "Anjaan"
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